मिर्ज़ापुर की एक प्रसिद्ध कजरी जो आपको यूट्यूब की दुनिया में न मिले
जनि जानित की जइब सावनवां में ..बाध लेहित तोके अचरवा में"...
"मिर्जापुरी कईल गुलजार हो ..कचोड़ी गली सुन कईल बलमु"(अवलेबल)
आसाढ के बाद सावन कजरी- तीज और कजरी- रतजगा" हमारे क्षेत्र में विशेष महत्व रखता है जिसका अपना अलग सांस्कृतिक महत्त्व है।
रामनरेश त्रिपाठी जब कजरी पर शोध कर रहे थे तो धान के रोपड़ के समय खेत के किनारे से खेत में चार बार गिरे तब उन्हें समझ आया की कजरी बीच खेत से गायी जाती है ।
कजरी जीवन के ना तो प्रारम्भ का गीत है, ना ही अंत का बल्कि सावन की तरह हरे-भरे जीवन का ही गीत है।
अवध की "सावनी" की तरह कजरी भी सावन के विरह ,नन्द-भौजाई के नोक-झोंक,मिलन और प्यार का
लोकगीत है ।
ज्यादातर कजरी का उतार - चढ़ाव"हरे रामा", "हो ननदीं" या "हो बलमु" से ही होता है। कजरी जहाँ प्रकृति से मानव के प्रत्यक्ष जुड़ाव का सांस्कृतिक मूल्य है वही एक सामूहिक गान भी है। गूगल कर के आप कजरी सुन सकते हैं
लेकिन शायद आपको मिर्ज़ापुर का बेहतरीन कजरी न सुनने के लिये मिले उसके कुछ बोल मैं आप के सामने रख रहा हूँ------
"पिया मेहदी लिया द मोतीझील से जा के सायकिल से ना"
मिर्जापुरी कजरी अन्य जगह से भिन्न है इसलिये नहीं की यह कजरी का उद्भव स्थल है बल्कि कजरी के कई प्रारम्भिक परंपराओं को लपेटे हुये है।
#मिर्जापुरी _कजरी
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